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25
Mar
11

Kajol vs Ponting

06
Feb
10

जो कभी नहीं जाती वही है जाती

यूं तो जाती और वर्ण का अंग्रेजी अनुवाद करे तो एक ही शब्द आता है caste किन्तु दोनों में ज़मीन आसमान का अंतर है | इसका आभास तो पहले से ही था पर detail में m n srinivas की किताब “The Remembered Village” पढ़ के लगा | ये किताब लेखक के रामपुरा में बिताये गए अध्यन की आपबीती है जो बड़े ही सहज ढंग में लिखी गयी है | इसके कई हिस्से भारतीय पाठकों को सामान्य लगेंगे क्यूंकि वो भारतीय सभ्यता और तौर तरीकों से अवगत है पर कई हिस्से मुझे तो आश्चर्य जनक लगे |

पहले तो जहां वर्ण एक सरल सी categorization है जो भारत में करीबन हर जगह पायी जाती है पर जाती हर प्रांत में अलग अलग रहती है और कहीं ज्यादा dynamic है | चार वर्णों में एक linear order है जो कभी बदलता नहीं पर ऐसे example भी पेश किये जिससे दिखाई देता है की वर्ण system नाम मात्र है | वर्णों के हिसाब से शूद्र चौथे दर्जे में आते हैं जो अछूतों से ऊपर माने जाते हैं, पर local context में शूद्र एक broad category है जिसमे किसान तक आते हैं (जो कई जगह क्षत्रीय भी माने जाते हैं) | ऐसे कई example हैं को दर्शाते हैं की local level पे वर्ण system के कोई मायने नहीं है|

कई लोगों में और खासकर पढ़े लिखे, शहर के modern ख्याल के लोगों में एक नजरिया पाया जाता है की जाती का system पिछड़ापन दिखाता है | इसमें कोई दोराय नहीं है की जात पात के चक्कर में खून खराबे हुए हैं | ऐसे मसलों को हल करने के लिए जो political system हमने बनाया है उससे आज तक तो शायद ही कोई लाभ हुआ हो | उल्टा vote bank जैसे शब्द पनप चुके हैं जो जातिवाद को और बढावा देते हैं | क्या आपसी मतभेद सुलझाने के कोई और रास्ते नहीं हैं? इन ही सब बातों के बारे में सोचने पे मजबूर किया इस किताब के एक हिस्से में जहां लेखक ने बताया की कैसे नीची कहलाई जाने वाली लोहार जाती ने खुद का दर्जा ऊंचा किया तमाम ज़रियों से| दूसरी जातियों ने तमाम अडचने पैदा करी पर धीरे धीरे उनका ओहदा बड़ा|

और भी उद्हारण दिए गए हैं जिनमे जातीयों में मतभेद रहा तो उन्होंने आपस में जैसे तैसे लड़ झगड़ के, बात चीत करके, तौर तरीके बदल के सुलझा लिए, कहीं भी वहाँ के MLA, MP का कोई ज़िक्र नहीं आता | सिर्फ जाती नहीं और भी कई मुद्दे ऐसे ही गाँव के अन्दर ही सुलझाये जाते, लोगों को राज्य की राजधानी, दिल्ली या media का कोई सहारा नहीं लेना पड़ा |

ये सब देख के लगता है की गाँधी का बताया हुआ पंचायत राज्य ही भारत के लिए उचित है, हर गाँव एक राज्य है, हर घर एक प्रयोगशाला, हर इंसान एक वैज्ञानिक, आखिरकार गाँधी के बनाये हुए आश्रम एक laboratory नहीं थे तो और क्या थे | जहां इतने लोग, इतनी बोली, मान्यताएं रखते हैं और जिनकी अपनी अपनी ज़रूरते हैं वहाँ एक central body कैसे सबके लिए निर्णय ले सकती है | लोगों को ज्यादा से ज्यादा autonomy मिलनी चाहिए | हाँ नेहरूवादी ज़रूर कहेंगे की इससे देश की आंतरिक सुरक्षा को खतरा है और देश टूट जायेगा (ये तर्क आन्ध्र प्रदेश विभाजन में भी उठाया गया था) पर ये डर उस समय का है जब देश नया नया बना था और पूरा भी नहीं था |

अब भारत की एकता को बाहर से ज्यादा अन्दर से खतरा है | नक्सलबारी कम होती दिख नहीं रही, महाराष्ट्रे में शिव सेना और राज ठाकरे जैसे cartoon(ist) समाज का व्यंग्य चित्र उभार के दिखा रहे हैं, वामपंथी (leftist) ने बंगाल में अपना रंग दिखा ही दिया, कश्मीरी लोग खुद को भारतीय नहीं मानते, हर थोड़े दिन में आरक्षण को लेकर कहीं न कहीं बवाल होता रहता है | और भारतीय मीडिया एक पागल आदमी सामान एक ही चीज़ चिल्लाता रहता है जिससे public discussion का बंटा धार हो चुका है|

शायद स्वदेस के ईसर काका सही ही कहते थे – जो कभी नहीं जाती वही है जाती
मेरे अनुसार तो जाती नहीं जानी चाहिए, वर्ण जाने चाहिए और जाती पे होने वाले ढोंग का अंत होना चाहिए| सिर्फ ये कह देने से की “जाती चीज़ ही खराब है और वो गायब हो जानी चाहिए” से कोई मसला हल नहीं होगा | हम जातियों को नकार के भी नहीं रह सकते और western secular democracy भी काम नहीं आती है |

26
Jan
10

किसका सुर और कैसे मिले?

इस गणतंत्र दिवस पे पता चला की भारतवर्ष का चहेता गाना “मिले सुर मेरा तुम्हारा” दोहराया गया है एक नए ढंग से “फिर मिले सुर मेरा तुम्हारा” (पहला हिस्सा, दूसरा हिस्सा ) | सुन कर अच्छा लगा, नयी सदी के नए दशक में क्यूँ न एकता में सारा समाज (समाज न की राष्ट्र-राज्य अर्थात nation-state) एक नए ढंग से सुर में सुर मिलाये , आखिर हर पीढी हर पौराणिक (mythology) वस्तु को अपने ढंग से दोहराती है और इस ही दोहराने, भूलने और याद रखने से ही ऐसी स्मृतियाँ जीवित रहती हैं | पर यह देख कर तनिक निराशा हुई की ये किसके सुर मिल रहे हैं और कैसे मिल रहे हैं|

जहां की पहले गाने में देश की जानी मानी हस्तियाँ तो थीं पर ऐसा नहीं लग रहा था की सिर्फ वही हैं इस देश में | नए गाने में सिर्फ हस्तियाँ वो भी ज्यादातर फ़िल्मी सितारे दिखाई दे रहे हैं | जहां पिछले गाने में हर प्रांत के , हर भाषा के सुर में वहाँ की मिटटी की खुशबू आती थी वहीं नए गाने में वो बात नज़र नहीं आ रही | और इन सब खुशबुओं का सम्मलेन किस सौंदर्य से होता है वो न सिर्फ दिखाई देता था पर सुनाई भी देता था | हस्तियों से कोई परहेज़ नहीं है लोग उनको जानते, पहचानते और मानते हैं पर उनका कोई स्थान तो होना चाहिए, बहुतों को बिना किसी सन्दर्भ (context) के ठूंस दिया गया है |

मैं कोई महान संगीतग्य तो नहीं की दोनों गानों के सुर लय और ताल की व्याख्या करूं और critical remarks दूं पर इतना ज़रूर लगता है जब पुराना गाना तेज पकड़ता है तो मन हर्षोल्लास से भर जाता है | जहां पुराने का आग़ाज़ पंडित भीम सेन जोशी से होता है वहीं अमिताभ बच्चन की आवाज़ मुझे तो न भाई, दीपिका पदुकोण वाला हिस्सा तनिक भी न भाता | शास्त्रीय संगीत तो अच्छा चुना है पर लोक संगीत में वो मिठास नहीं आती | कुछ कुछ हिस्से तो बहुत बेकार लगे जैसे श्यामक डावर, शाहिद कपूर और रणबीर कपूर के | शंकर एहसान और लॉय के सुरों में गिटार बहुत अजीब सा लगता है | पंजाब के सुर में तो पुराने गाने का कोई जवाब नहीं है |

ऐसे विश्लेषण का कोई अंत नहीं है पर कुल मिलाकर देखा जाये तो लगता है सुर तो हैं, थोड़े अछे, थोड़े कम अछे पर उनका मिलन कुछ ख़ास न हुआ, समागम कम और कलह ज्यादा | वो अंग्रेजी में कहते हैं न – sum is more than its parts वो आभास न हुआ