Archive for February 6th, 2010

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Feb
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दास्ताँ “जो” और “गन्ना” की

Based on true experiences. People who know me from 2001-05 should be able to relate with this story, including the characters in the story. People who don’t know me and can’t relate it may ignore this as a rambling hand on a keyboard.

दूर गाँव एक बस्ती थी जहां technology बहुत ही सस्ती थी | ये बात है साधूनगर नामक एक गाँव की जहां एक अनाथालय स्थापित किया गया | जिस मारवाड़ी सेठ के नाम पे अनाथालय बनाया गया लोग उसके गुण गान करते और ढेर सारी technology पड़ा करते थे | शुरुआत के पांच भगवानों से तो अब कई भगवान् हो चुके थे | सारे भगवान् मिल कर नहीं तो आपस में अपने देवत्व में चूर होकर बच्चों को ढेर सारा ज्ञान और बहुत सारी technology देते थे | और बच्चे भी मन के सच्चे, खूब जोर लगा के नहीं पड़ते थे , पास में bioscope वाले भैय्या के यहाँ दिन गुजारते और एक छोटे से डब्बे में धमा चौकड़ी करते | काम देव के ऐसे कृपा बाण चले और सूखी सेहरा में कहीं से सोमरस का ऐसा झरना फूटा की पूरा आलम मद में सराबोर हो मादक हो चला | यूं समझिये की हर दिन vallentine और हर रात Ballentine | चचा ग़ालिब तो गलत थे जो कहते “इश्क ने ‘ग़ालिब’निकम्मा कर दिया,वरना हम भी आदमी थे काम के” | अजी ख़ाक डालिए ग़ालिब को यहाँ तो उलटी कहावत हो गयी “इश्क ने कर दिया कामगार ‘कायल’, जब आशिक ने लगा दिया काम पे” | प्रेमी युगल मिलके और जुलके दिन रात पड़ी करते और अव्वल दर्जे से पास होते |

तो उन कई भगवानों में से एक थे जिनका नाम था “नंग धडंग जोकर”, हम इस किस्से में उसे “जो” पुकारेंगे | तो ये है जोकर, मतलब “जो” का एक वाक्या श्रीमान गन्ना के साथ | गन्ना तो अराजकता का प्रतीक था और “जो” तो control freak था | जो खाने और न पीने का भगवान् था और जनता खाने से त्रस्त थी | पराठे तो बगल के चार रास्ता के हवालदार से भी कड़क , मानो खाने के लिए नहीं Judo Karate की practice के लिए बनाये गए हैं | जो आंकड़े लड़ाने में उस्ताद था, जब पैदा हुआ था तब nurse ने ये थोड़े बोला था की लड़का पैदा हुआ है, nurse ने उस ही समय घोषित कर दिया की चलता फिरता कंप्यूटर पैदा हुआ है | खैर जब श्रीमान गन्ना पहुंचे शिकायत करने तो जो ने भारी भरकम शब्दों की एक लड़ी लगा दी | और जब पत्थर नुमा पराठे दिखाए गए तो थोडा दंग तो हुआ पर लड़ी रुकी नहीं |

गन्ना ने बीच में कुछ बोला तो जो ने उसे झड़प दिया | जब जो ने पेट भर के अल्फाजों की उलटी कर ली तो फिर चैन की सांस लेते हुए गन्ना को बोलने को बोला | पर गन्ना चुप और मना कर दिया | जो बौखला गया और कहा तुम कुछ बोल रहे थे अब बोलते क्यूँ नहीं | गन्ना ने दो टूक सा जवाब दिया – आपको मेरे बोलने पे अधिकार है चुप्पी पे नहीं और वहाँ से चल दिया |

06
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जो कभी नहीं जाती वही है जाती

यूं तो जाती और वर्ण का अंग्रेजी अनुवाद करे तो एक ही शब्द आता है caste किन्तु दोनों में ज़मीन आसमान का अंतर है | इसका आभास तो पहले से ही था पर detail में m n srinivas की किताब “The Remembered Village” पढ़ के लगा | ये किताब लेखक के रामपुरा में बिताये गए अध्यन की आपबीती है जो बड़े ही सहज ढंग में लिखी गयी है | इसके कई हिस्से भारतीय पाठकों को सामान्य लगेंगे क्यूंकि वो भारतीय सभ्यता और तौर तरीकों से अवगत है पर कई हिस्से मुझे तो आश्चर्य जनक लगे |

पहले तो जहां वर्ण एक सरल सी categorization है जो भारत में करीबन हर जगह पायी जाती है पर जाती हर प्रांत में अलग अलग रहती है और कहीं ज्यादा dynamic है | चार वर्णों में एक linear order है जो कभी बदलता नहीं पर ऐसे example भी पेश किये जिससे दिखाई देता है की वर्ण system नाम मात्र है | वर्णों के हिसाब से शूद्र चौथे दर्जे में आते हैं जो अछूतों से ऊपर माने जाते हैं, पर local context में शूद्र एक broad category है जिसमे किसान तक आते हैं (जो कई जगह क्षत्रीय भी माने जाते हैं) | ऐसे कई example हैं को दर्शाते हैं की local level पे वर्ण system के कोई मायने नहीं है|

कई लोगों में और खासकर पढ़े लिखे, शहर के modern ख्याल के लोगों में एक नजरिया पाया जाता है की जाती का system पिछड़ापन दिखाता है | इसमें कोई दोराय नहीं है की जात पात के चक्कर में खून खराबे हुए हैं | ऐसे मसलों को हल करने के लिए जो political system हमने बनाया है उससे आज तक तो शायद ही कोई लाभ हुआ हो | उल्टा vote bank जैसे शब्द पनप चुके हैं जो जातिवाद को और बढावा देते हैं | क्या आपसी मतभेद सुलझाने के कोई और रास्ते नहीं हैं? इन ही सब बातों के बारे में सोचने पे मजबूर किया इस किताब के एक हिस्से में जहां लेखक ने बताया की कैसे नीची कहलाई जाने वाली लोहार जाती ने खुद का दर्जा ऊंचा किया तमाम ज़रियों से| दूसरी जातियों ने तमाम अडचने पैदा करी पर धीरे धीरे उनका ओहदा बड़ा|

और भी उद्हारण दिए गए हैं जिनमे जातीयों में मतभेद रहा तो उन्होंने आपस में जैसे तैसे लड़ झगड़ के, बात चीत करके, तौर तरीके बदल के सुलझा लिए, कहीं भी वहाँ के MLA, MP का कोई ज़िक्र नहीं आता | सिर्फ जाती नहीं और भी कई मुद्दे ऐसे ही गाँव के अन्दर ही सुलझाये जाते, लोगों को राज्य की राजधानी, दिल्ली या media का कोई सहारा नहीं लेना पड़ा |

ये सब देख के लगता है की गाँधी का बताया हुआ पंचायत राज्य ही भारत के लिए उचित है, हर गाँव एक राज्य है, हर घर एक प्रयोगशाला, हर इंसान एक वैज्ञानिक, आखिरकार गाँधी के बनाये हुए आश्रम एक laboratory नहीं थे तो और क्या थे | जहां इतने लोग, इतनी बोली, मान्यताएं रखते हैं और जिनकी अपनी अपनी ज़रूरते हैं वहाँ एक central body कैसे सबके लिए निर्णय ले सकती है | लोगों को ज्यादा से ज्यादा autonomy मिलनी चाहिए | हाँ नेहरूवादी ज़रूर कहेंगे की इससे देश की आंतरिक सुरक्षा को खतरा है और देश टूट जायेगा (ये तर्क आन्ध्र प्रदेश विभाजन में भी उठाया गया था) पर ये डर उस समय का है जब देश नया नया बना था और पूरा भी नहीं था |

अब भारत की एकता को बाहर से ज्यादा अन्दर से खतरा है | नक्सलबारी कम होती दिख नहीं रही, महाराष्ट्रे में शिव सेना और राज ठाकरे जैसे cartoon(ist) समाज का व्यंग्य चित्र उभार के दिखा रहे हैं, वामपंथी (leftist) ने बंगाल में अपना रंग दिखा ही दिया, कश्मीरी लोग खुद को भारतीय नहीं मानते, हर थोड़े दिन में आरक्षण को लेकर कहीं न कहीं बवाल होता रहता है | और भारतीय मीडिया एक पागल आदमी सामान एक ही चीज़ चिल्लाता रहता है जिससे public discussion का बंटा धार हो चुका है|

शायद स्वदेस के ईसर काका सही ही कहते थे – जो कभी नहीं जाती वही है जाती
मेरे अनुसार तो जाती नहीं जानी चाहिए, वर्ण जाने चाहिए और जाती पे होने वाले ढोंग का अंत होना चाहिए| सिर्फ ये कह देने से की “जाती चीज़ ही खराब है और वो गायब हो जानी चाहिए” से कोई मसला हल नहीं होगा | हम जातियों को नकार के भी नहीं रह सकते और western secular democracy भी काम नहीं आती है |